शनिवार, 26 सितंबर 2015

चाँद से सूरज तक का सफ़र

वैसे तो सूरज से हाथ मिलाकर सफ़र शुरू करते हैं और सूरज के अस्त होते ही हम चाँद से रूबरू हो जाते हैं , सूरज तो पूरा का पूरा मिलता है रोज मगर ये चाँद आधा तीहा ही मिल पाता है या फिर पूरा का पूरा गायब , कुछ ऐसा ही हमारे सफ़र की मंजिल का हश्र है ,,,चाँद जैसा ही....अब पूरी बात क्या बोलूँ चाँद और मंजिल से तुलना कर लो ,,,मगर उस मंजिल को सूरज में तब्दील करना है ,,,पूरा का पूरा ही चाहिए .

मेरे सपनो की बारादरी |
जहां पाँव के नीचे जमी नहीं होती
कोई रंग नहीं होता
मगर सूरज से मिलने की चाह
जरूर होती है ,,,भले ही वो दूर हो कहीं
उसके उजाले में सिकुड़े मेरे पंख
पलकों के बंद होते ही खुल जाते हैं
उड़ने लगते हैं पल भर में ही
मेरे सपनो के पंख बहुत तेज हैं
किसी जादूगर की कालीन की तरह
कभी चाँद की मुंडेर पर बैठकर
सूरज को झाँकने की कोशिश
या फिर बादलों में छिपी रोशनी
की तमतमाहट को छूने को व्याकुल

कितनी तेजी से मन भागता है

इन पंखों के सहारे जहां पैरों का कोई काम नहीं
इसीलिए तो सुबह तरोताजा होते हैं हम
ख़्वाबों की तरबियत ही सही कुछ तो है
वही सब जो हम दिन भर तिल तिल कर मरते हैं
वही सब हम ख्वाबों में उड़ उड़ कर जीते हैं
इसीलिए चाँद से सूरज का सफ़र करना है मुझे

सोमवार, 30 जून 2014

है तुम्हें धिक्कार जीवन

प्राण में मत आह भरना
है तुम्हें धिक्कार जीवन
झुकना मत गर तुम सही हो
करना तुम प्रतिकार जीवन

साथ मत देंना  विकृत का
लोभ ना  स्वीकार जीवन
कौन है ? मैं बस तुम्हारा !
शब्द अस्वीकार जीवन

एक संयम भाव  है बस
सहन कर पर ना बदलना
लाख उल्काएं गिरे गर
तान शर टंकार जीवन


भ्रमित भौरे का सहारा
छोड़ दे उपकार जीवन
आज जो कल स्वर्ण होगा
लौह बन गुजार जीवन


रविवार, 22 जून 2014

मन कहता है शश्त्र उठा लूं

मन कहता है शश्त्र उठा लूं 
चीर दूं सीना हैवानो का 
जो मैला करते हैं तन को 
कहते हैं की भूल हो गयी 

खबर नहीं है इस मिटटी की 
शत्रु की नजरें तनी हुयी 
कुत्सित मन के ब्यभिचारों से 
व्यथा आज फिर घृणित हुयी



कांधे पर संगीन नहीं है 
नजरों में कायरता है 
बना हुआ है व्याध निरंकुश 
बचपन को अब रौंद रहा 

मन कहता है दावानल बन 
अग्नि प्रवाहित लहरों से 
एक धधक सब ख़ाक मिला दूं 
ज्वलित अस्त्र आवाहन मन

सोमवार, 19 मई 2014

ओ ! कलम तलवार बन जा

ओ ! कलम तलवार बन जा

10 August 2013 at 00:25


कलम तू तलवार बन जा , रक्त शब्दित धार बन जा,
अरि के मस्तक की हो स्याही, वज्र सा प्रहार बन जा .

शब्द लिख जिसमे हो ज्वाला अग्नि भड़के मिला हाला ,
 रोम हो कम्पित पढे जो चन्द्र पहने सूर्य माला .

कदम की धमकार लिख दे, शत्रु हाहाकार लिख दे,
 मन्त्र सी सिध्ही हो इसमें, विजय हो हर बार लिख दे.

 
 

मैं तो हूँ सैनिक धरा का माँ को थोड़ा प्यार लिख दे,
जननी मेरी मात्री भूमि,मृत्यु का सत्कार लिख दे. 

रुक ज़रा तू सोच थोड़ा, शिव हूँ मैं तू नेत्र मेरा , 
शब्द से खुल जाएँ आँखें प्रलय का प्रवाह लिख दे. 

हे ! कलम मैं खडा रन में ,शंख सा आह्वान लिख दे,
चल पडे सुनकर सुदर्शन चक्र से संहार लिख दे.






शत्रु दमनित हो गया जो, काल कवलित हो गया जो , 
माँ की वीणा बज उठेगी, सप्त सुर के तार लिख दे,

प्रिय मिलन को प्रेयसी सी, शब्द माला फिर गुन्थेगी ,
शिशिर में चादर से लिपटी ओस पुष्पों से मिलेगी ,

इंद्र धनुषी अम्बरों पे , मेघ की फुहार होगी .
 अब निमीलित नहीं हैं हम, जागता इंसान लिख दे,

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रविवार, 30 सितंबर 2012

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित
एक दावानल सा विखरूं मैं
सोने की लंका तार तार
बस रूप विश्व का बदलूँ मैं

नव वस्त्र पहन कोपल फूटे
हम  स्वप्न से जागे हों जैसे
पहली ही नजर में रूप अलग
जल थल के माने अलग थलग



उल्का पातों की बारिश में
मानव अग्नि सा दहक उठे
हर कदम बढे ललकारों से
हुंकारती ध्वनि सा बहक उठे

कण कण धरती दहला दे
बस अग्नि शिखा बन भास्मित हो
सब ताप राख नव निर्मित हो
जीवन का नया स्वरुप सजे



अब अग्नि फूल बन धरती पर
स्वर्णित आभा मदमाती हो
जलना होगा सबको पहले
जीवन की चाह से आप्लावित 


मैं बिखर विखर जाऊं जग में
माना ये ताप का उद्द्बोधन
मैं अग्नि की वीणा से झंकृत
दूं बदल विश्व हो आह्लादित ,

हम देश नहीं ,हम धर्म नहीं , हम पूरी एक सभ्यता हैं

हम देश नहीं ,हम धर्म नहीं , हम पूरी एक सभ्यता हैं

by Suman Mishra on Friday, 14 September 2012 at 13:18 ·


हम देश नहीं हम धर्म नहीं
हम पूरी एक सभ्यता हैं
जन जन का मस्तक गर्वित हो
हम विश्व धरोहर सत्ता हैं

हमसे है उपजा ज्ञान राग
हमसे है उपजा राग ज्ञान
वैदिक, जंत्रित, तंत्रित का जोड़ तोड़
हमसे धरती हर फलक छोर



सत्ता की लोलुपता से सींच
बोते हैं कुछ कुछ घृणित बीज
उस तरु को काट कर फेंकेगे
नव पल्लव को  हम आज रोप


माँ की वाणी में सत्य कथन
हिंदी ओजस्वी मात्रि नमन
हर रोज शब्द का आवाहन
इस एक दिवस का क्या प्रचलन ?

 

अंग्रेजी की ना लाग लपेट
बैठा है विषधर फन को फेंट
कैसे हारेगा विष से भरा
हिंदी का अमृत सबको सेंत

रोटी की भाषा अंग्रेजी
पर ज्ञान अभी तक सीमित सा
जब ज्ञान नहीं तो मान नहीं
सम्मान करो सब हिंदी का....

स्वाधीनता दिवस स्वाभिमानियों का

स्वाधीनता दिवस स्वाभिमानियों का

by Suman Mishra on Wednesday, 15 August 2012 at 01:07 ·


कहीं रोशनी सजी हुयी है , कही लड़ी है फूलों की
हल्का सा कोलाहल फैला , मगर बात कुछ और ही है

बंदूकों की गोली क्या बस एक पटाखा फटा कहीं
जश्न कहाँ आजादी कैसी , यहाँ बात कुछ और ही है


अनशन और हड़ताल की बातें आम हुयी है लोगों में
सत्ता के गलियारे सूने ,सूना ? बात कुछ और ही है


ढूढ़ रहा आजादी  इन्सां इन ६५ सालों में खुद
एक बूँद पानी को तरसा , अबकी बात कुछ और ही है



बड़ी बड़ी तस्वीरों में भारत माँ की जो झांकी है
क्या सच में ये सत्य है या फिर बात वही फिर बाकी है

गढ़ते  रहना वर्षों से आजादी के किस्सों को तुम
पर शहीद की बात ना करना इतनी बड़ी आबादी है

अपना हक़ और अपनी बातें सब मसरूफ ज़माने में
पर हल क्या निकला कुछ भी नहीं तो बातों की बर्बादी है





रक्त बहा था , प्राण थे छूटे,फांसी का फंदा लटका
गले लगा कर झूल गए थे , भारत माँ तब शहजादी थी


बडे जतन से बेड़ियाँ तोड़ी , आज्दादी तब रानी थी
आज यहाँ किस्सों के जैसी  एक कहानी नानी की

बड़ा दुखद है दृश्य देश का, क्या आजाद हुए हैं हम
जहरीली मुस्कान सभी की ,कभी मिली आजादी थी ? जो अब मिलेगी,,,,