रविवार, 30 सितंबर 2012

गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी

गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी

by Suman Mishra on Wednesday, 29 August 2012 at 16:48 ·

पग हमारे इस धरा पर , कर्म भी मेरे ही हैं
मैं नहीं अर्जुन की तुम संग मेरे सारथि बनो 
क्या था वो उसकी हिमाकत ना अगर तुम साथ हो
अब तो हाँ में हाँ मिला दो , माना की तुम बेआवाज हो

खुशनसीबी ज़रा सी थी ग़लतफ़हमी भी कहो 
साथ बस थोड़ा सा था , और मन फरेबी ही कहो

खेल था या सत्य सा कुछ बात अलहदा सी थी
हर तरफ भ्रम जाल फैला , बस भीड़ का रेला ना था 



सुन ज़रा पूरी तो करली तूने अपने मन की बात
मानू क्यों मैं जग विधाता या कहू यूँ पालन हार
एक ही है शर्त मेरी मेरी हाँ में हाँ मिला
ना कहूं तो रोक देना , अश्रु जग के ओ ! पिता

मौन मंदिर शांत सा है, कोई मूरत ही नहीं 
एक बस आकृति अपना रूप धरती सी लगे
कहकहे लगते थे जब जीवंत था सब कुछ समय
अब नहीं मैं जान पाऊँ ये थमा क्यों पल में ही


फिर वही सूरज है निकला रेनू  भी वैसी ही है
चाँद की भी बात वैसी , दिशा भी सब एक सी
पंछी भी अपने ही धुन में कलरवों की जुबा में
"पर नहीं वो बीच सबके जुदा जो खुद से हुआ " 


गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी
वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी
पर नहीं अब शब्द जुड़ते सब कही है खो गए
छीन लेता है धनुष जब , फिर कहा कुरुछेत्र है

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