रविवार, 30 सितंबर 2012

किसी मंजर से हूँ बाबस्ता , वो इबादत का नशा सी (आँखों देखी )

किसी मंजर से हूँ बाबस्ता , वो इबादत का नशा सी (आँखों देखी )

by Suman Mishra on Tuesday, 11 September 2012 at 00:34 ·


आँखों के सामने से गुजरा वो मंजर
किसी शहीद(सैनिक)  की अर्थी पे सुलगता हुआ
गरबत्ती का धुंआ
उसके जीवन के जद्दो जेहद  की आकृतियों 
को तराशकर अपने रास्ते पर बढ़ता हुआ ,,,
बस मुट्ठियों में सारे शरीर के रक्त का इकट्ठा होना
वही मंजर और मेरी इबादत के नशे में तब्दील हुआ

अब वो शहीद  कहाँ  जिन्हें फंदे से नवाजा था
अब वो शहीद कहाँ जिसने हमें कुछ और ही आंका था
उनकी आँखों के सपने हमारी आज की दुनिया
अछा हुआ जो उन्होंने हमारा आज नहीं देखा


कुछ कंकड़ पत्थर ही सही इस देश की माटी में

बाकी तो फसलों की जड़ों में बंधी है
थोड़ी सी जो मिले मैं बाँध लूं मुट्ठी में
और शपथ से महसूस करू उन शहीदों की


सड़कों पर पतली सी डंडी की खट पट
सामने वाले की आँखों को इशारा करती हुयी
ऐ आँख वालों मुझे रास्ता दे देना
हम भी निकल पड़े हैं   बंद आँखों के सहारे

रंगों की पोटली पकड़ा दी मैंने
लो कुछ रंग विखेरो और महसूस करो
मगर उन बनती बिगडती लकीरों से
उसके चेहरे के रंग को महसूस किया

कैसा है वो सबकुछ दिया पर रोशनी छीन ली
भेज दिया इस जहां में दो पैर और दो हाथ देकर
उसकी बनाए दुनिया को वो गर देख भी लेता
तो क्या  बिगड़ जाता उस करोड़ों आँखों वाले का


कोशिश की थी सीढ़ियों से उस तक पहुचने की
मगर क़दमों ने लडखडाना सीख लिया था
मंजिल थी बहुत दूर जिसका निशाँ भी नहीं
और पत्थरों  ने डगमगाना सीख लिया था


कोई  तो निशाँ होगा उस तक पहुचने का

या ऐसे ही पिरामिडों की मीनार बना दें

हम पहुचे या ना पहुंचे वहाँ तक कभी भी
मेरे बाद हम खुद  तुम्हारे लिए इतिहास  बना दें
(जाने कितनी आकृतियों को स्मारकों को, देखकर ख़याल आता है )

कोई टिप्पणी नहीं: