रविवार, 30 सितंबर 2012

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित...एक दावानाल सा बिखरूं में

by Suman Mishra on Wednesday, 19 September 2012 at 15:02 ·

मैं नहीं व्यथित , बस मन दग्धित
एक दावानल सा विखरूं मैं
सोने की लंका तार तार
बस रूप विश्व का बदलूँ मैं

नव वस्त्र पहन कोपल फूटे
हम  स्वप्न से जागे हों जैसे
पहली ही नजर में रूप अलग
जल थल के माने अलग थलग



उल्का पातों की बारिश में
मानव अग्नि सा दहक उठे
हर कदम बढे ललकारों से
हुंकारती ध्वनि सा बहक उठे

कण कण धरती दहला दे
बस अग्नि शिखा बन भास्मित हो
सब ताप राख नव निर्मित हो
जीवन का नया स्वरुप सजे



अब अग्नि फूल बन धरती पर
स्वर्णित आभा मदमाती हो
जलना होगा सबको पहले
जीवन की चाह से आप्लावित 


मैं बिखर विखर जाऊं जग में
माना ये ताप का उद्द्बोधन
मैं अग्नि की वीणा से झंकृत
दूं बदल विश्व हो आह्लादित ,

हम देश नहीं ,हम धर्म नहीं , हम पूरी एक सभ्यता हैं

हम देश नहीं ,हम धर्म नहीं , हम पूरी एक सभ्यता हैं

by Suman Mishra on Friday, 14 September 2012 at 13:18 ·


हम देश नहीं हम धर्म नहीं
हम पूरी एक सभ्यता हैं
जन जन का मस्तक गर्वित हो
हम विश्व धरोहर सत्ता हैं

हमसे है उपजा ज्ञान राग
हमसे है उपजा राग ज्ञान
वैदिक, जंत्रित, तंत्रित का जोड़ तोड़
हमसे धरती हर फलक छोर



सत्ता की लोलुपता से सींच
बोते हैं कुछ कुछ घृणित बीज
उस तरु को काट कर फेंकेगे
नव पल्लव को  हम आज रोप


माँ की वाणी में सत्य कथन
हिंदी ओजस्वी मात्रि नमन
हर रोज शब्द का आवाहन
इस एक दिवस का क्या प्रचलन ?

 

अंग्रेजी की ना लाग लपेट
बैठा है विषधर फन को फेंट
कैसे हारेगा विष से भरा
हिंदी का अमृत सबको सेंत

रोटी की भाषा अंग्रेजी
पर ज्ञान अभी तक सीमित सा
जब ज्ञान नहीं तो मान नहीं
सम्मान करो सब हिंदी का....

स्वाधीनता दिवस स्वाभिमानियों का

स्वाधीनता दिवस स्वाभिमानियों का

by Suman Mishra on Wednesday, 15 August 2012 at 01:07 ·


कहीं रोशनी सजी हुयी है , कही लड़ी है फूलों की
हल्का सा कोलाहल फैला , मगर बात कुछ और ही है

बंदूकों की गोली क्या बस एक पटाखा फटा कहीं
जश्न कहाँ आजादी कैसी , यहाँ बात कुछ और ही है


अनशन और हड़ताल की बातें आम हुयी है लोगों में
सत्ता के गलियारे सूने ,सूना ? बात कुछ और ही है


ढूढ़ रहा आजादी  इन्सां इन ६५ सालों में खुद
एक बूँद पानी को तरसा , अबकी बात कुछ और ही है



बड़ी बड़ी तस्वीरों में भारत माँ की जो झांकी है
क्या सच में ये सत्य है या फिर बात वही फिर बाकी है

गढ़ते  रहना वर्षों से आजादी के किस्सों को तुम
पर शहीद की बात ना करना इतनी बड़ी आबादी है

अपना हक़ और अपनी बातें सब मसरूफ ज़माने में
पर हल क्या निकला कुछ भी नहीं तो बातों की बर्बादी है





रक्त बहा था , प्राण थे छूटे,फांसी का फंदा लटका
गले लगा कर झूल गए थे , भारत माँ तब शहजादी थी


बडे जतन से बेड़ियाँ तोड़ी , आज्दादी तब रानी थी
आज यहाँ किस्सों के जैसी  एक कहानी नानी की

बड़ा दुखद है दृश्य देश का, क्या आजाद हुए हैं हम
जहरीली मुस्कान सभी की ,कभी मिली आजादी थी ? जो अब मिलेगी,,,,

शंख्नादित स्वर कहाँ हुंकार ही हुंकार है

शंख्नादित स्वर कहाँ हुंकार ही हुंकार है

by Suman Mishra on Sunday, 12 August 2012 at 23:56 ·
 
अब कहाँ कौरव की सेना अब कहाँ प्रहार है
शाश्त्र से उत्पन्न उन्वानो की बस ये बाढ़ है
कौन लिखता काव्य दुर्लभ कौन जिम्मेवार है
शंख्नादित स्वर कहाँ हुंकार ही हुंकार है

सिंह की हुंकार कह लो गूँज कर फिर चुप हुयी
खरहरों की छलांगों में कोई तपस्या भंग हुयी
एक मंथन शब्द का पंचांग पर लिख वेद सा
कुंडली से भाग्य रेखा कही पर मध्यम  हुयी ?



कितनी भटकन , कितनी उलझन ,
उलझा मानव , पथ भ्रमित है
कौन सच्चा कौन झूठा
कौन अंतिम द्वार तक है ?


शब्दों में बस धुंध ही है
शश्त्रों में अब धार कहाँ
जंग लग कर टूटते हैं
अब ये जंगे आजादी कहाँ





ख़तम कर दो नस्ल को,जो दासता को पालती
ह्रदय की धड़कन नहीं है,रुख पे है पर्दा डालती

नसों में पानी नहीं रक्तिम सी आभा ज्वलित हो,
बूँद गिर कर धरा पर वीरों की गाथा गठित हो ,  


हर प्रहर धिक्कार मन को,जज्बे को बाहर आने दे

सिक्के के पहलू हो अपने, हर दिशा अपनाने दे
जिस तरफ क़दमों का रुख बस वो जमी अपनी ही हो
वक्त की पुकार सुन , दुश्मन को अब थर्राने दे 

गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी

गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी

by Suman Mishra on Wednesday, 29 August 2012 at 16:48 ·

पग हमारे इस धरा पर , कर्म भी मेरे ही हैं
मैं नहीं अर्जुन की तुम संग मेरे सारथि बनो 
क्या था वो उसकी हिमाकत ना अगर तुम साथ हो
अब तो हाँ में हाँ मिला दो , माना की तुम बेआवाज हो

खुशनसीबी ज़रा सी थी ग़लतफ़हमी भी कहो 
साथ बस थोड़ा सा था , और मन फरेबी ही कहो

खेल था या सत्य सा कुछ बात अलहदा सी थी
हर तरफ भ्रम जाल फैला , बस भीड़ का रेला ना था 



सुन ज़रा पूरी तो करली तूने अपने मन की बात
मानू क्यों मैं जग विधाता या कहू यूँ पालन हार
एक ही है शर्त मेरी मेरी हाँ में हाँ मिला
ना कहूं तो रोक देना , अश्रु जग के ओ ! पिता

मौन मंदिर शांत सा है, कोई मूरत ही नहीं 
एक बस आकृति अपना रूप धरती सी लगे
कहकहे लगते थे जब जीवंत था सब कुछ समय
अब नहीं मैं जान पाऊँ ये थमा क्यों पल में ही


फिर वही सूरज है निकला रेनू  भी वैसी ही है
चाँद की भी बात वैसी , दिशा भी सब एक सी
पंछी भी अपने ही धुन में कलरवों की जुबा में
"पर नहीं वो बीच सबके जुदा जो खुद से हुआ " 


गीत लिक्खे जाने कितने शूल के और फूल भी
वज्र था रन छेत्र का , शर था बुझा विष तीर भी
पर नहीं अब शब्द जुड़ते सब कही है खो गए
छीन लेता है धनुष जब , फिर कहा कुरुछेत्र है

कुछ अजीब सा लगता है जब.........

कुछ अजीब सा लगता है जब.........

by Suman Mishra on Thursday, 30 August 2012 at 00:39 ·

सुबह की खुमारी पूजा के बाद की
पहियों पे दौडती जिदगियाँ
हर दिशा में गूंजता शोर अजीब अजीब सा
उनके बीच में ठेले को धकेलती हुयी
वो सूखी सी फल बेचने वाली
कुछ अजीब सा लगता है......



कभी कभी कुछ अलग सा इंसान
कमीज की बाहें झूली हुयी सी
ओह ! शायद कटी हुयी थी
मगर वो बेखबर सा सड़कों पर फिरता हुआ
कुछ अजीब सा लगता है




रात भर तूफानी बारिश के बाद

सुबह की चमकीली धुप में चमकती पत्तियाँ

मगर देर रात से बूँदें अटकी पेड़ों पर

क्यों गिरी नहीं अब तक
आसमान से तो बडे वेग से गिरी थी
अब किसके इन्तजार में हैं
कुछ अजीब सा नहीं लगता ?


Modern आर्ट की प्रदर्शनी
आड़े तिरछी रेखाओं पर framed  तसवीरें
लोग जाने कितने अर्थ निकालते हुए
क्या किसी ने रंगों की बोतल उलट दी थी ?
या रंगों भरी कहानी लिख दी थी

ध्यान से देखी हाथों की रेखाओं सी
जीवन के अलग अलग रंगों को बयान करती हुयी
मगर इंसान इन रंगों को पढने में सछम है
खुद के अन्दर की उथल पुथल को क्यों नहीं ?

कुछ भी ठीक नहीं , बड़ा अजीब सा लगता है

विद्रोही मन सावधान रह ..आजादी किस बात की है ?

विद्रोही मन सावधान रह ..आजादी किस बात की है ?

by Suman Mishra on Saturday, 1 September 2012 at 00:04 ·


विद्रोही मन सावधान रह
आजादी किस बात की है
अनशन और आन्दोलन में हम
खुशहाली  किस बात की है

मोहपाश ये अजब तिरंगा
जननी जन्मभूमिश्च अपनी
माँ का दर जो रक्त शक्त में
फिर बर्बादी किस बात की है ?

कहीं मयूरों का नर्तन है
कहीं देश के गान में हम
कही होड़ अधिकारों की है
हर पल जिम्मेवार हैं हम

कहाँ कहाँ आजाद तिरंगा
लहराएगा हर दिल में 
पर सच में ये दुखद बहुत है
समझे नहीं आजादी हम ..

कल की ही तो बात थी जब
थी शांति कपोतों की पांती
आज खड़ा खुदार बंधा सा
स्वाभिमान या अभिमानी

हिन्दुस्तान हमारा है
तुम भी सोचो संकल्पों में
हम आज यहाँ इस नक्शे में
कल विश्व नमन स्वीकारेंगे,,,,,

किसी मंजर से हूँ बाबस्ता , वो इबादत का नशा सी (आँखों देखी )

किसी मंजर से हूँ बाबस्ता , वो इबादत का नशा सी (आँखों देखी )

by Suman Mishra on Tuesday, 11 September 2012 at 00:34 ·


आँखों के सामने से गुजरा वो मंजर
किसी शहीद(सैनिक)  की अर्थी पे सुलगता हुआ
गरबत्ती का धुंआ
उसके जीवन के जद्दो जेहद  की आकृतियों 
को तराशकर अपने रास्ते पर बढ़ता हुआ ,,,
बस मुट्ठियों में सारे शरीर के रक्त का इकट्ठा होना
वही मंजर और मेरी इबादत के नशे में तब्दील हुआ

अब वो शहीद  कहाँ  जिन्हें फंदे से नवाजा था
अब वो शहीद कहाँ जिसने हमें कुछ और ही आंका था
उनकी आँखों के सपने हमारी आज की दुनिया
अछा हुआ जो उन्होंने हमारा आज नहीं देखा


कुछ कंकड़ पत्थर ही सही इस देश की माटी में

बाकी तो फसलों की जड़ों में बंधी है
थोड़ी सी जो मिले मैं बाँध लूं मुट्ठी में
और शपथ से महसूस करू उन शहीदों की


सड़कों पर पतली सी डंडी की खट पट
सामने वाले की आँखों को इशारा करती हुयी
ऐ आँख वालों मुझे रास्ता दे देना
हम भी निकल पड़े हैं   बंद आँखों के सहारे

रंगों की पोटली पकड़ा दी मैंने
लो कुछ रंग विखेरो और महसूस करो
मगर उन बनती बिगडती लकीरों से
उसके चेहरे के रंग को महसूस किया

कैसा है वो सबकुछ दिया पर रोशनी छीन ली
भेज दिया इस जहां में दो पैर और दो हाथ देकर
उसकी बनाए दुनिया को वो गर देख भी लेता
तो क्या  बिगड़ जाता उस करोड़ों आँखों वाले का


कोशिश की थी सीढ़ियों से उस तक पहुचने की
मगर क़दमों ने लडखडाना सीख लिया था
मंजिल थी बहुत दूर जिसका निशाँ भी नहीं
और पत्थरों  ने डगमगाना सीख लिया था


कोई  तो निशाँ होगा उस तक पहुचने का

या ऐसे ही पिरामिडों की मीनार बना दें

हम पहुचे या ना पहुंचे वहाँ तक कभी भी
मेरे बाद हम खुद  तुम्हारे लिए इतिहास  बना दें
(जाने कितनी आकृतियों को स्मारकों को, देखकर ख़याल आता है )

शनिवार, 18 अगस्त 2012

सूरज रंग कर ऐसे निकले


सूरज रंग कर ऐसे निकले
जैसे रंगा है अपना तिरंगा
जल पर परछाई लहराए
सुबह सुबह हो विश्व ति- रंगा 


जल में हम स्नान करें
तन मन रंग हो येही तिरंगा
भारत की पहचान इसीसे
सब की जाती में नाम ति-रंगा 


चक्र सुदर्शन अस्त्र हमारा
शेरो की हो अपनी सवारी
एक दहाड़ भयभीत शत्रु हो
मित्र बने सब, जग जीत तिरंगा...वन्दे मातरम् 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

रक्तिम स्याही


आज से आरम्भ है , आज से शुरुआत है
रक्त की ही बात हो  , मन में ये उल्लास हो
बात कुछ हो देश आगे, धर्म का परिवेश आगे
मैंने ठाना आज से ही, कलम से  हर बात हो 

बहुत सींचा क्यारियों को
फूल की तो बात मत कर
तितलियों का ठौर कोई
भाडे पे इजाद मत कर 

रंग दे तू शलाका को
बूँद रक्तों से ही धधके
इंधनों में रक्त फून्कूं
सूर्य की लाली भी भभके

कर दिशा को ज्वलित अब तू
ये पिपासा शांत ना हो
शांति पाठों को पढ़ा था
फिर ये आजादी मना तू 

ये कोई त्यौहार है क्या
जर्द चेहरों पे लकीरें
कह रही कुछ दास्ताने
बेबसी की मन  फकीरी

रख जहा पर कदम देगा
धंसेगी धरती तुरत ही
आएगी सीता भी बाहर
राम से कह विजय होगी.....जय हिंद,,,